क्या जस्टिस वर्मा के खिलाफ़ FIR दर्ज होनी चाहिए? आज सुप्रीम कोर्ट में कैश विवाद मामले में आज जस्टिस वर्मा के खिलाप FIR देनें की सुप्रीम कोर्ट में माँग हो सकती है।
तर्क संगत प्रश्न को याचिकाकर्ता का मानना है कि मामले की जांच के लिए तीन न्यायाधीशों की समिति का गठन की आवश्यकता नहीं है और अब, जांच पुलिस द्वारा की जानी चाहिए। याचिकाकर्ता पुलिस जांच और न्यायिक मानक विधेयक को पुनर्जीवित करना चाहता है:
संक्षेप में:
याचिका में न्यायिक भ्रष्टाचार सुरक्षा उपायों पर 1991 के फैसले की समीक्षा की मांग की गई है
याचिकाकर्ता पुलिस जांच और न्यायिक मानक विधेयक को पुनर्जीवित करना चाहता है
न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा पर कदाचार साबित होने पर महाभियोग चलाया जा सकता है
उच्चतम न्यायालय शुक्रवार को उस याचिका पर सुनवाई करेगा जिसमें 14 मार्च की रात को आग लगने की घटना के दौरान उनके सरकारी आवास पर भारी मात्रा में नकदी वरामद हुई उसके बाद दिल्ली उच्च न्यायालय के न्यायाधीश यशवंत वर्मा के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज FIR करने के लिए दिल्ली पुलिस को निर्देश देने की मांग होने लगी है।
आज जस्टिस वर्मा के खिलाप FIR देनें की सुप्रीम कोर्ट में माँग
याचिका में कहा गया है, “हमारे यहाँ की न्याय प्रणाली के न्यायाधीश, एक अल्पसंख्यक को छोड़कर, महानतम विद्वत्ता, निष्ठा, ज्ञान की पराकाष्ठा और स्वतंत्र वाले पुरुष और महिलाएं हैं, लेकिन ऐसी दयनीय घटनाओं को दर्किनार इनकार नहीं किया जा सकता है, जहां न्यायाधीशों को पैसे लेते हुए रंगे हाथों पकड़ा गया हो। के. वीरास्वामी के मामले में दिए गए फैसले ने, याचिकाकर्ताओं की जानकारी के अनुसार, POCSO से जुड़े अपराध में भी एफआईआर दर्ज करने के रास्ते में बाधा उत्पन्न की गई है।”
दस्तवेज के आधर पर एडवोकेट मैथ्यूज जे. नेदुम्परा द्वारा दायर याचिका में शीर्ष अदालत से 1991 के के. वीरास्वामी के ऐतिहासिक फैसले की समीक्षा करने का आग्रह किया गया है, जिसमें भ्रष्टाचार के आरोपों का सामना कर रहे न्यायाधीशों को कई सुरक्षा उपाय दिए गए थे।
इस फैसले का उद्देश्य न्यायिक स्वतंत्रता को बनाए रखना था, जिसे 1973 के केशवानंद भारती मामले में संविधान के “मूल ढांचे” का हिस्सा माना गया था।
1991 के फैसले में, सुप्रीम कोर्ट ने माना कि भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 के तहत “लोक सेवक” की परिभाषा सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के न्यायाधीशों पर लागू होती है। हालाँकि, इसने यह भी फैसला सुनाया कि उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के खिलाफ जांच भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) की पूर्व मंजूरी के बिना आगे नहीं बढ़ सकती है, इस प्रकार, न्यायिक जवाबदेही और स्वतंत्रता के बीच संतुलन बना रहेगा है।
आज जस्टिस वर्मा के खिलाप FIR देनें की सुप्रीम कोर्ट में माँग
संविधान के तहत, किसी न्यायाधीश पर लोकसभा और राज्यसभा दोनों में दो-तिहाई बहुमत से महाभियोग लगाया जा सकता है। कथित कदाचार की जांच के लिए सीजेआई संजीव खन्ना द्वारा गठित जांच समिति की उत्पत्ति 1999 में हुई थी, जब सुप्रीम कोर्ट ने आंतरिक तंत्र स्थापित किया था संसदीय कार्यवाही से पहले एक मध्यवर्ती कदम के रूप में स्थापित की थी।
जस्टिस वर्मा के मामले में, अगर इन-हाउस कमेटी को कदाचार के सबूत मिलते हैं, तो उनके खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई हो उनके खिलाप कार्रवाई की जा सकती है, जिससे संसद में बहस करने और महाभियोग प्रस्ताव पारित करने का रास्ता साफ हो सकता है।
हालांकि, याचिकाकर्ता का तर्क है कि मामले की जांच के लिए तीन जजों की समिति का गठन अनावश्यक है और अब जांच पुलिस द्वारा की जानी चाहिए।
इसके अतिरिक्त, याचिका में सरकार से न्यायपालिका के सभी स्तरों पर भ्रष्टाचार को रोकने के लिए प्रभावी और सार्थक कदम उठाने की लिए कार्रवाई करने का आग्रह किया गया है।
और पढ़ें: जस्टिस वर्मा कैश विवाद रिपोर्ट सार्वजनिक हुए जले हुए नोट मिले
बुधवार की सुनवाई के दौरान, मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना की अगुवाई वाली पीठ ने तत्काल सुनवाई पर कोई टिप्पणी नहीं की, लेकिन कहा कि वे रजिस्ट्री को मामले को सूचीबद्ध करने का निर्देश देंगे। याचिकाकर्ता को इस संबंध में न्यायालय से औपचारिक अनुरोध करने की सलाह दी गई।
कैश-इन-होम विवाद में घिरे जस्टिस यशवंत वर्मा का सच
याचिकाकर्ता ने न्यायिक मानक और जवाबदेही विधेयक, 2010 को पुनर्जीवित करने की भी मांग की, जो संसद में समाप्त हो गया था।
अगर आप हमें कोई सुझाव देना चाहें, थो contact us के माध्यम से लिख सकते है।